गर्मी

        गर्मी 
गर्मी - गर्मी, हाय रे गर्मी,
बेचैन हमें कर देती ये गर्मी।
झुलसाती इस गर्मी में मानो,
सब-कुछ लगता झुलस रहा।
प्रचंड सूरज अपने रौद्र रूप में ,
सब कुछ भस्म कर के ही मानें।
अनचाहे ये लू के थपेड़े,
दिन भर चलते ही रहते हैं।
मई जून में पड़ती थी जो गर्मी,
अप्रैल में ही शुरू हो जाती है। 
धरती भी अब हो गई है ऐसे,
आग ही उगल रही हो जैसे।
पंखे- कूलर भी फेल हो गए,
कहीं राहत नहीं मिलती है।
ऊंची ऊंची इतराती ईमारतें,
मानव का उपहास उड़ातीं है।
जिन पेड़ों को काटा था तुमने,
उन का हिसाब चुका रे मानव 
अब फिर से पेड़ लगा धरती पर,
ये कह सब का मुंह चिढ़ाती हैं।
गर्मी - गर्मी, हाय ये गर्मी अब,
बिल्कुल सही नहीं जाती है।
कंचन चौहान, बीकानेर 

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