संदेश

क्षितिज के पार जाना है

क्षितिज के पार जाना है  हां,मुझे अब क्षितिज के पार जाना है, कितना उड़ सकती हूं मैं , अब ये मुझको आजमाना है। सौलह श्रृंगार, सदियों किए मैंने, शिक्षा को सत्रहवां श्रृंगार बनाना है, हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। नारी जो शक्ति स्वरूपा थीं सदियों से, क्यों बंधी रूढ़ियों में, क्यों जकड़ी बेड़ियों में, ये पता अब मुझे लगाना है, हां अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। कोमल मन और कोमल तन, जो दिया, नारी को ईश्वर ने, नहीं कमजोर दिए निश्चय, यही सबको दिखाना है, हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। लाचार नहीं हूं मैं,मन मेरा कोमल है , संकल्प है ये मेरा, सुंदर संसार बसाना है, कुछ झुककर, कुछ उठकर, परिवार चलाना है, अबला नहीं हूं मैं,बस ये बतलाना है। हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। श्रृंगार नहीं सौलह, शिक्षा श्रृंगार सत्रहवां है, सत्रहवें श्रृंगार से अब खुद को सजाना है, सम्मान के बदले में, सम्मान ही पाना है, हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। कंचन चौहान, बीकानेर 

बस तूं अपने ख्वाब बुन

चल अब फिर से तूं ख्वाब बुन, ना औरों की तूं बात सुन, खुद पर बस विश्वास कर। इक नयी डगर पर आज चल, और नये सफर का आगाज कर। ना औरों पर तूं ध्यान धर, अपनी मंजिल तूं आप चुन, हां, खुद पर बस विश्वास कर। कुछ रोकेंगे, कुछ टोकेंगे, कुछ तुझे हौसला भी देंगे , भांति - भांति लोग मिले , ना कर तूं किसी से शिकवे गिले। सब कुछ जीवन का हिस्सा है, ये हर प्राणी का किस्सा है। बस तूं मंजिल पर ध्यान धर, ना भटका मन तूं इधर उधर। जिस दिन मंजिल को पायेगा, तेरा जीवन सफ़ल हो जायेगा। तूं कब हारा था,कब टूटा था, ये किसी को याद ना आएगा। तेरी कामयाबी के जश्न में, हर कोई तुझे, गले लगायेगा। लेकिन जो हार के बैठ गया, दुनिया की भीड़ में खो जायेगा। तूं कब आया था,कब गया, ये किसी को याद ना आएगा। चल फिर से तूं ख्वाब बुन, हिम्मत को अपना साथी चुन। तेरा जज्बा,तेरा हौसला, तेरी पहचान बन जायेगा। जब हार नहीं मानेगा तूं, और खुद को खुद पहचानेगा, मंजिल भी रस्ता निहारेंगी, तेरे ख्वाबों को सच करने को, कायनात शिद्दत से तुझे पुकारेगी। माना जिंदगानी खेल नहीं केवल, हर क़द...

मेरे देश का सैनिक

देश आज युद्ध के घेरे में है, किस्मत वाले हैं हम, क्यूं कि, हम फिर भी सुरक्षा के पहरे में हैं। खड़ा है मेरे देश के, चप्पे-चप्पे पर, अत्याधुनिक हथियारों से लैस, मेरे देश का सैनिक सीमाओं पर। जान हथेली पर है उसकी, न जाने कौन सा पल आखिरी हो, बूढ़े मां-बाप,भाई और बहन, और वो,जिसे विवाह कर लाया था, अभी पिछले दिसम्बर में। सब हैं उसके ज़हन में, लेकिन, सारे फ़र्ज़ भूला कर के, उसे देश का फ़र्ज़ निभाना है। देश मेरा सर्वोपरि है ,  पहले उसका क़र्ज़ चुकाना है। देश की रक्षा में खड़ा सैनिक, मातृभूमि का रक्षक है। मेरा सैनिक चौकस खड़ा सीमाओं पर, विश्वास है ये बच्चे -बच्चे को , सो जाते हैं हम अपने घरों में चैन से, क्यों कि सैनिक खड़ा है सीमाओं पर। रहे सलामत मेरे देश का हर सैनिक, शामिल कर लो उसे दुआओं में, है अपनी मां की आंख का तारा वो, इंतजार उसका करतीं हैं वो सूनी आंखें, जिसे विवाह कर लाया था पिछले दिसम्बर में। सकुशल लौट कर जाएं अपने घर को, मेरे देश का सैनिक हे ईश्वर, मेरी इतनी दुआ कुबूल करो। मैं जिस की वजह से सुरक्षित हूं, अब उसकी रक्षा आप करो। कंचन चौहान, बीकानेर 

मां

मां तुम  बहुत याद आती है, तुम्हारे न होने की कसक, आंखों में नमीं सी ले आती है। मन बहुत कुछ कहना चाहता है तुमसे, लेकिन तुम्हारे न होने का एहसास, बरबस ही मन को बोझिल कर जाता है। वो घर ,वो गलियां, वो शहर, आज भी वैसा ही है, लेकिन  सब कुछ सूना है तुम बिन, बस एक तेरा न होना ही, सब कुछ अधूरा सा कर गया। सुना था, मां से ही होता है मायका, तेरा जाना, इसे भी साबित कर गया। मां अब बहुत याद आती हो, कुछ अनकही सी वो बातें, जो तुम बिन कहे सुन लेतीं, मेरे होंठों की हंसी में, मेरी उदासी पढ़ लेतीं, बस एक तेरे जाने से, खत्म सारे अफसाने हो गये, वो घर , वो गलियां, वो शहर क्या, मेरी दुनिया में वीराने हो गये। कंचन चौहान, बीकानेर

अक्षय तृतीया

    अक्षय तृतीया  आखा तीज का पर्व पुराना, क्यूं हमने इसे माना है, क्या इसकी है कथा कहानी, क्या हमने इसे जाना है। बैसाख मास के शुक्ल पक्ष की,  तृतीया तिथि,अक्षय तृतीया कहलाती है। दान, पुण्य और जप- तप सारे, अक्षुण्ण हो जातें हैं। इस दिन की महिमा सारे, शास्त्र और वेद सुनाते हैं। इस दिन की महिमा है भारी, बतलाते हैं बारंबारी, विष्णु जी के छठे अवतार, परशुराम जी का जन्म हुआ था इस दिन  और गंगा मैया उतरीं धरती पर, धोएं पाप जिसमें नर - नारी। कहते हैं केशव ने इस दिन, अक्षय पात्र कृष्णा को देकर, हर ली उसकी चिंता भारी। दान धर्म और व्रत,जप तप करते, विशेष रूप से सब नर - नारी। अक्षय तृतीया का पावन दिन, शुभ मुहूर्त कहलाता है, इस दिन किए कर्म सारे, अक्षुण्य हो जातें हैं। सुख, समृद्धि और शांति का प्रतीक, पावन पर्व अक्षय तृतीया, शुभ मुहूर्त कहलाता है, इस दिन किए कर्म सारे, स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं, इसीलिए, इस दिन की महिमा, सारे वेद और पुराण गाते हैं। कंचन चौहान, बीकानेर 

अटल सच्चाई

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प्रिय स्त्री

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लघुकथा: घूंघट

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         “ घूंघट “ मैं टैक्सी में बैठी अपने गंतव्य की ओर जा रही थी। दूर सड़क के किनारे एक महिला अपने एक हाथ में दूध की बरनी लटकाए हुए और दूसरे हाथ से बार - बार अपने घूंघट को खींच रही थी। शायद सड़क पार करने का इंतजार कर रही थी। देखने में वह महिला अधेड़ उम्र से थोड़ा ज्यादा ही लग रही थी।उसे देख मुझे ख्याल आया कि घूंघट की ओट तो छोड़ो, शायद इस उम्र में कुदरती आंखों से भी कम दिखना आम बात होगी।उसी उधेड़बुन में टैक्सी उसे पीछे छोड़ आगे निकल गयी और मैं अपने काम में व्यस्त हो गई। अगले दिन अखबार में एक कोने में छपी खबर ने मुझे झकझोर दिया। ख़बर थी, "तेज रफ़्तार ट्रक ने अधेड़ महिला को कुचला, अज्ञात चालक के खिलाफ मामला दर्ज"। मुझे बार-बार सड़क किनारे घूंघट में खड़ी महिला का ध्यान आ रहा था। कंचन चौहान, बीकानेर

म, तेरा जाना

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नयी शुरुआत

नयी शुरूआत  हर दिन एक नया दिन हैं, हर पल नया - नया सा है। कुछ नहीं बिगड़ा, सब कुछ सही है, सांसें जब तक साथ में है। थोड़ा रुको, विचार करो, आत्म विष्लेषण अपने आप करो। गलती गुनाह नहीं होती है,सीखो, और फिर नयी शुरुआत करो। ना शिकवा - गिला, शिकायत करो, ना इल्जाम किसी दूजे पर धरो। अपने हिस्से का संघर्ष करो, हर दिन है नया, नयी शुरूआत करो। बस मन चाही उड़ान भरो, जो देखे हैं सपने, साकार करो। कल चाहे, कठिन समय था, जो बीत गया, सो बीत गया। अंधियारे के बाद उजाला है, हर रात का अंत सवेरा है। जीवन के कड़वे अनुभव से, सीखो और नयी शुरूआत करो। ईश्वर का उपहार है जीवन, नये सफर का आगाज करो। कंचन चौहान, बीकानेर