क्षितिज के पार जाना है
क्षितिज के पार जाना है हां,मुझे अब क्षितिज के पार जाना है, कितना उड़ सकती हूं मैं , अब ये मुझको आजमाना है। सौलह श्रृंगार, सदियों किए मैंने, शिक्षा को सत्रहवां श्रृंगार बनाना है, हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। नारी जो शक्ति स्वरूपा थीं सदियों से, क्यों बंधी रूढ़ियों में, क्यों जकड़ी बेड़ियों में, ये पता अब मुझे लगाना है, हां अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। कोमल मन और कोमल तन, जो दिया, नारी को ईश्वर ने, नहीं कमजोर दिए निश्चय, यही सबको दिखाना है, हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। लाचार नहीं हूं मैं,मन मेरा कोमल है , संकल्प है ये मेरा, सुंदर संसार बसाना है, कुछ झुककर, कुछ उठकर, परिवार चलाना है, अबला नहीं हूं मैं,बस ये बतलाना है। हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। श्रृंगार नहीं सौलह, शिक्षा श्रृंगार सत्रहवां है, सत्रहवें श्रृंगार से अब खुद को सजाना है, सम्मान के बदले में, सम्मान ही पाना है, हां, अब मुझे क्षितिज के पार जाना है। कंचन चौहान, बीकानेर