आधुनिकता की दौड़

आधुनिकता की दौड़
भारत की हर चीज निराली,
दुनिया घूम के देखो सब।
घर की मुर्गी दाल बराबर,
ये बात हमीं पर लागू है।
आधुनिकता की दौड़ में देखो,
कितना कुछ हम छोड़ चले।
योग बना जीवन का हिस्सा,
जिस योग को छोड़ दिया हमने।
अध्यात्म पर लौटी दुनिया,
जब हम अध्यात्म से दूर हुए।
अब जड़ी- बूटियों पर लौटी दुनिया,
और हम नशे की ओर चले।
आधुनिकता के चलते हम,
किस ओर चले, किस ओर चले।
खुद की संस्कृति को भूल गए,
संस्कारों को जब छोड़ा हमने।
परिवारिक संस्था  खतरे में है,
अब लिव - इन का है दौर चला।
मेरे देश की संस्कृति अव्वल है,
दुनिया जिसको अपनाती है।
आधुनिकता की होड़ में हम,
सब छोड़ चले,किस ओर चले।
मां की रसोई छोड़ के हम,
गलियों में खाना खाते हैं,
जहां सिर्फ मुनाफा मकसद है,
सेहत का कोई मोल नहीं।
दुनिया तरसें मां की ममता को,
हम उस ममता को छोड़ चले।
जागो मेरे देश के लोगो,
वरना वो दिन दूर नहीं,
जब फिर से दास बनेंगे हम।
और फिर,उसका कोई तोड़ नहीं।
शारीरिक गुलाम बनें थे हम,
अब दिलो-दिमाग की बारी है।
मेरे देश की संस्कृति अव्वल है,
दुनिया जिसको अपनाती है।
परिवर्तन भले ही जरूरी है,
पर मूल निराला है इसका,
समय रहते बस सम्भल जाओ,
वरना परिणाम बड़े घातक हैं।
इस बात का मूल जरा समझो,
मेरा देश है अव्वल दुनिया में
इस की हर बात निराली है।
घर की मुर्गी है दाल बराबर,
इस बात को मिथ्या कर दो अब,
अपना कर अपने संस्कारों को,
भारत की शान बढ़ा दो सब।
कंचन चौहान, बीकानेर 

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