मैं ही सही
मैं ही सही
मिट्टी के घरों में रहते थे,
परियों की कहानी कहते थे,
राजा रानी के किस्से थे।
गुड्डे-गुड़ियों के खिलौने थे।
सिर्फ दिलों में मस्ती थी,
रिश्तों में प्यार पनपता था,
ना स्वार्थ था, ना हिस्से थे।
बस दिल की बात ही सुनते थे,
वो दिन भी कितने अच्छे थे
परिवार को जोड़ कर रखना,
अपनी जिम्मेदारी समझते थे।
अब सीमेंट के घरों में रहते हैं,
अब ना कहते हैं,ना सुनते हैं।
सिर्फ मैं सही,बस मैं ही सही,
इस अहं में डूबे सब रहते हैं।
दूरी है दिलों में यहां सबके ,
ना रिश्ते में प्यार पनपता है।
अपने -अपने हिस्से सबके,
अपने -अपने किस्से हैं।
बस तेरा - मेरा के भाव यहां,
अपने पन का अहसास नहीं,
रिश्ते जरूरत पर टिके हुए,
पत्थर के घरों में पत्थर सब,
रिश्तों में पुराना प्यार नहीं।
किसी को किसी की दरकार नहीं
सिर्फ मैं सही और मैं ही सही,
दिल और दिमाग में जंग है छिड़ी,
अब दिमाग दिलों पर हावी है,
नहीं दिखती अब अच्छाई है,
सब के मन में ये बात समाई है ,
बस मैं ही सही और मैं ही सही,
इसके आगे नहीं दिखता अब,
वो प्यार हो या फिर सच्चाई है।
अब एक ही अंतिम सच्चाई है,
बस मैं ही सही और मैं ही सही।
कंचन चौहान, बीकानेर
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